04 April 2024

अनुपूरक (निबंध)

अनुपूरक / निबंध


 

'अर्धांगिनी' यह संबोधन सुनने में जितना मधुर है एक विवाहित युगल के लिए उतना ही प्रभावशाली भी। जब पति अपनी विवाहिता को जीवन में दासी नहीं परंतु सखी का स्थान देता है तब वह पत्नी के अस्तित्व को खुद भी महसूस कर सकता है। वह अपनी पत्नी की प्रसन्नता एवं विडंबना के कारणों को समझ सकता है। उसकी इच्छाओं को, आकांक्षाओं को, अपेक्षा को, उसकी कमजोरियों को, अर्थात् अपनी पत्नी के स्वभाव के सभी पहलू को समझ सकता है। अपने दांपत्य जीवन में यह अनूठा स्थान स्त्री के जीवन को प्रफुल्लित बना देती है। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के विरोधी नहीं है, एक दूसरे के विकल्प भी नहीं है, किंतु एक दूसरे के बिना अपूर्ण है एक दूसरे के अनुपूरक हैं। भारतीय अर्वाचीन साहित्य में ‘अर्धनारीश्वर’ तथा ‘राधाकृष्णेश्वर’ की अवधारणा इस बात की पुष्टि करती है की एक दूसरे के अस्तित्व की स्वानुभूति ही उनके अपने अस्तित्व की पूर्णता के लिए महत्वपूर्ण है।

         आम तौर पर एक भारतीय विवाहित महिला का जीवन उसके पति के दृष्टिकोण के आधीन होता है। उसके व्यक्तित्व का नेतृत्व उसके पति की बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करती है। किसी महिला का व्यक्तित्व विकसित होगा या नहीं,  होगा तो कैसे और किस दिशा में, ये सारी बातें पति की पसंद-नापसंद पर निर्भर करती हैं। लेकिन अगर एक महिला को उसकी क्षमताओं और रुचियों के अनुसार विकसित होने और पनपने की अनुमति दी जाए, तो एक पुरुष भी अपने जीवन में सुधार देख सकता है।  न सिर्फ अपने जीवन में किंतु अपने घर में, घर के संस्कारों में, अपने विवाहित जीवन में, बच्चों के भविष्य-निर्माण में, मूल्यों में भी अति सुंदर और दृढ़ परिवर्तन को महसूस कर सकता है।

एक महिला के विकास के लिए उसके पिता और पति का व्यापक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना अति आवश्यक है। हालाँकि, एक महिला को अपनी क्षमताओं और योग्यताओं की जानकारी भी होनी चाहिए। अपने अस्तित्व को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी उसकी अपनी भी है। स्वयं को मिलने वाली स्वतंत्रता और अवसरों का सदुपयोग करने की अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। किसी समाज सुधारक द्वारा दिया गया व्याख्यान या भारतीय संविधान में महिलाओं के अधिकारों के प्रावधान का कार्यान्वयन या किसी महिला संगठन द्वारा दिया गया महिला हित का नारा किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण को नहीं बदलता, ना ही किसी महिला का विकास करता है।

किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके गठन का एक प्रमुख हिस्सा है, एक महत्वपूर्ण परिणाम है। चरित्र निर्माण के बीज बचपन में ही बोए जाते हैं। व्यक्तित्व का निर्माण मुख्य रूप से माता-पिता, घर के बड़े-बुजुर्गों, उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं और संस्कारों पर आधारित होता है। किशोरावस्था का कोई लड़का जब रोता है तो घर के बड़े-बूढ़े कहते हैं,

      "एक लड़के होकर रो रहे हो?"

       "लड़के कभी रोते हैं क्या?"

       "तुम जवान लड़के हो, रोते क्यों हो?"

      "लड़के तो मजबूत होते हैं, छोटी-छोटी बातों पर रोते नहीं।"

कभी-कभी तो स्त्रीत्व पर सीधा प्रहार किया जाता है,

      "एक लड़का हो कर लड़की की तरह रो रहा है?"

      किसी बच्चे को शांत करने के लिए बोले गए सामान्य दिखते ये वाक्यांश सीधे उसके अवचेतन मन पर जातिगत भेदभाव की एक विशेष छबी प्रस्थापित करते हैं। अजीब बात है कि घर के बुजुर्ग ही बेटे-बेटियों को समझाते हैं कि लड़के लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत होते हैं। रोना लड़कियों के लिए है, लड़कों के लिए नहीं। दूसरी ओर लड़कियों को निरंतर सलाह दी जाती है कि...

      "तुम तो लड़की हो, ऐसी बात मत करो!"

      "लड़कियों को मर्यादा में रहना चाहिए।"

       "लड़कों जैसी बातें मत करो।"

       "लड़को जैसे हरकतें मत करो।" आदि इत्यादि...

जन्म से ही सभी के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि स्त्री का जीवन किसी न किसी रूप में पुरुष के आधीन होता है। "स्त्रीत्व कमजोरी का प्रतीक है जबकि पुरुषत्व ताकत का।" ऐसे विचारों से ग्रस्त समाज महिलाओं को किस श्रेणी में रखेगा?  उसे कितनी स्वतंत्रता देगा?  व्यक्तित्व विकास के लिए कौन से अवसर देगा? और यह समाज स्त्री और पुरुष को समक्ष कब और कैसे स्वीकार करेगा?

      किसी पुरुष को विवाहोपरांत अपनी पत्नी को अपनी अर्धांगिनी, अपना पूरक अंग समझने के लिए विद्यमान विचारों एवं तथ्यों का सूक्ष्मता से मूल्यांकन करना आवश्यक है। जिस प्रकार पुरुषत्व पराक्रम का प्रतीक है, उसी प्रकार स्त्रीत्व कोमलता और लचीलेपन का प्रतीक है। एक महिला अपने अनूठे गुणों से ही एक नए जीवन को जन्म दे सकती है। वह शारीरिक कठोरता के साथ मातृत्व धारण कैसे  कर सकती है?

जिस प्रकार जन्म देने के लिए मातृत्व आवश्यक है, उसी प्रकार जीवनयापन और जीवनचक्र टीकाए रखने के लिए पिता की शक्तियों की आवश्यकता है। किसी भी कार्य में सफल होने के लिए, बच्चों को उनकी उच्चतम क्षमता तक विकसित करने के लिए एक दूरदर्शी पिता की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बच्चे में मूल्यों और भावनात्मक पहलू को विकसित करने के लिए एक सूक्ष्मदर्शी माता की आवश्यकता होती है। घर बनाने के लिए पुरुष की व्यापकता और घर बसाने के लिए स्त्री की विनम्रता अपरिहार्य है। यदि पुरुष गणना है, तो स्त्री कविता है। यदि पुरुष विवाह का आकाश है, तो स्त्री जिजीविषा की ज्योति है।

दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। एक-दूसरे को उनके अपने स्वभाव के साथ उनकी स्वीकृति उन्हें पूर्ण बनाती है। एक पुरुष के लिए महिला उसकी 'अर्धांगिनी' होती है और एक महिला के लिए पुरुष उसका 'अर्धनारीश्वर' होता है। स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के 'पूरक' हैं।

हर साल 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिन' मनाया जाता है, 'विश्व चिड़िया दिन', 'विश्व शेर दिन' की तरह ही।  जीव-सृष्टि की वह अधिकांश प्रजातियां जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, उनके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए एक विशेष अभियान के रूप में एक विशेष दिन मनाया जाता है। अथवा प्रकृति के वे तत्व जिनके प्रति मानव जाति की लापरवाही निकट भविष्य में विश्व में बड़ी आपदाओं का कारण बन सकती है, उन प्राकृतिक तत्वों के महत्व को समझाने के लिए, उनकी रक्षा के लिए विशेष दिवस मनाये जाते हैं, जैसे 'वन दिवस', 'पृथ्वी दिवस', 'जल दिवस'। लेकिन महिला दिवस?

स्त्री और पुरुष समाज रूपी रथ के दो मुख्य पहिए हैं, जिन पर समाज की पूरी इमारत खड़ी है। हालाँकि, इसी समाज में जीवन प्रबंधन और जीवन निर्माण में एक माँ, एक बहन, एक पत्नी या महिलाओं के अन्य रूपों के महत्व का वर्णन करने की विशेष आवश्यकता उत्पन्न हुई। कारणों की तलाश में समाज का एक विशेष हिस्सा सामने आता है। एक ऐसी तस्वीर सामने आती है जहां महिलाओं को कभी-कभी इंसान ही नहीं समझा जाता। उनके साथ एक मनुष्येत्तर प्राणी की तरह व्यवहार किया गया है। धर्म और सत्ता की दुनिया में स्त्री को एक भोग्य पदार्थ के रूप में देखा गया है। और ये बात किसी एक निश्चित समय या किसी एक ही देश की नहीं है। यह सदियों पुरानी सार्वभौम समस्या है। विभिन्न देशों, समाजों, संस्कृतियों और सभ्यताओं में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। लेकिन एक सच्चाई जो इतिहास के हर पन्ने पर अंकित है, वह है पितृसत्ता के वर्चस्व की अडिगता। आईए एक काव्य पंक्ति पर नज़र डालें....

      Man for the field and woman for the heart,

      Man for the sword and for the needle she,

      .......

      Man to command to woman to obey.

         यह बहुप्रचलित पंक्तियाँ 19वीं सदी के यूरोप में अंग्रेजी साहित्य के महानतम लेखकों में से एक टी. एस. एलियट की हैं, जो तत्कालीन पुरुषों और महिलाओं के विभाजित कार्यक्षेत्र की स्पष्ट अभिव्यक्ति करतीं हैं। उपरोक्त पंक्ति में न केवल महिलाओं की क्षमताओं का अवमूल्यन किया गया है बल्कि संपूर्ण स्त्री जाति को पुरुष के अधीन चित्रित किया गया है। बेशक, दुनिया के हर कोने में पुरुष-पूर्वाग्रह के कारण महिलाओं पर अत्याचार के उदाहरण मौजूद हैं। जिस धरा पर हमने जन्म लिया है, जहां लक्ष्मी, महाकाली, दुर्गा देवी नारीशक्ति का प्रतीक हैं, उसी धरा पर एक समय था जहां इन देवियों के मंदिरों में महिलाओं का जाना वर्जित था। उनके लिए दुर्गाष्टक और लक्ष्मी-चालीसा का पाठ वर्जित था। हालाँकि, महिला विरोधी विचारधाराओं, रूढ़ियों और कूरिवाजों का उन्मूलन जारी है। लेकिन आखिर समाज में इन परिस्थितिओं का निर्माण हुआ ही क्यों?  क्या वे इंसान नहीं हैं? क्या भक्ति और आस्था भी बाध्य हो सकती है? आज के विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस युग में जहां महिलाएं अपनी सभी सीमाओं को पार कर अपनी सभी क्षमताओं के साथ अंतरिक्ष तक पहुंची हैं, जहां हर साल कई महिलाओं को नोबेल पुरस्कार और विश्व शांति पुरस्कार , रसायन-विज्ञान, भौतिकी, जीव विज्ञान, कला, संस्कृति और साहित्य जैसे विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है। अल्बत्त, विश्व में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जहां नारी अपने स्त्रियोचित गुणों के साथ न पहुंची हो। इसका मतलब है कि हर महिला एक स्वतंत्र इंसान है और अपने लिए चुनौतीपूर्ण किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए सक्षम है। इसीलिए हर व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, के मन मैं जो यह विचारधारा जोंक की तरह चिपक गई है कि,

  "Man to command and women to obey."

की यथार्थता पर पुनर्विचार करना अनिवार्य हो गया है। एक खुशाल जीवन दोनों के बीच द्वंद्वात्मक संघर्ष से नहीं बल्कि सम्मानजनक सह-अस्तित्व से ही संभव एवं गतिशील होगा।

एक महिला के लिए उसका एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में सम्मानउसे परावलंबी नहीं बल्कि बौद्धिक और शारीरिक रूप से सबल होने का दर्जा और समाज के हर कार्य में एक अभिन्न अंग, एक पूरक के रूप में इसकी स्वीकृति ही स्त्रीत्व का सच्चा पुरस्कार है।

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विश्व गाथा मार्च 2024 अंक में प्रकाशित निबंध अनुपूरक

©️ पल्लवी गुप्ता 🌷 



1 comment:

DINESH PATEL said...

Very nice and revolutionary thought