रेती
एक दिन मैंने
मुट्ठी में मिट्टी भर ली।
सम्बन्धों का बीज बोया।
प्रेम का ओज देती रही।
भावनाओं की नमीं से सींचती रही।
खाद में उदारता मिला पोषती रही।
और फुदकती चिड़िया की तरह
मेरी उत्सुकता चहचहाती रही।
कि कब कोई अंकुर निकलेगा!
आज निकलेगा!
कल निकलेगा!
दिन बीते,
महिने,
और फिर कई साल।
हर ऋतु को मैंने बहलाया
कि
आओ! हम दोनों मिलकर
इसे पोषें, संभालें।
भविष्य में खुशियों-भरा एक आँगन
यहाँ लहलहाएगा।
किंतु
कभी कोई अंकुर फूटा ही नहीं।
व्याकुल हो,
मैं खोज करने निकली।
और मैंने मुट्ठी खोली।
तो हथेली से सरक गई
सारी रेती
और
वह सड़ा हुआ बीज भी।
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'दिवान मेरा' कविता विशेषांक में प्रकाशित
©️पल्लवी गुप्ता 🌷
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