श्री भगवद्गीता - मानव धर्म ग्रंथ
वर्ष के आरंभ में, अर्थात 1 जनवरी 2024 को, मेरे जन्मदिन पर मुझे एक अमूल्य उपहार प्राप्त हुआ—श्री भगवद्गीता ग्रंथ। हर वर्ष मेरे परिजन, मित्र और शिष्यवृंद अनेक प्रकार के उपहार देते हैं, किंतु इस बार इस ग्रंथ को पाते ही मेरे हृदय में एक अनूठी ऊर्जा का संचार हुआ। इस उपहार के लिए मैं उपहार देने वाले के प्रति अंतःकरण से आभारी हूँ।
मेरे ग्रेट पापाजी हर चीज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने वाले हैं, और मेरी माँ की कृष्णभक्ति की झंकार घर में प्रातः और सायं गूंजती रहती है।
इन दो विचारधाराओं—वैज्ञानिक दृष्टिकोण और भक्ति—के मजबूत और विशाल फलक के बीच मेरा जीवन चलता है। पुरुषार्थ और परमार्थ के स्पष्ट विचारों के इस संगम में मुझे नियति और कर्म दोनों को समझने, विश्लेषण करने तथा अपने निष्कर्षों को अभिव्यक्त करने के कई अवसर मिलते हैं। माता-पिता के चरणों में मेरा शत-शत नमन।
'श्री भगवद्गीता' एकमात्र ऐसा धर्मग्रंथ है, जो कर्म को व्याख्यायित करता है। इसमें न तो ईश्वर की उपासना की विधियाँ हैं, न ईश्वर के क्रोधित हो जाने से जीवन पर आने वाले संकटों का भय। न ही ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पूजा-अर्चना के प्रकारों का वर्णन है। यह केवल निःस्वार्थ भाव से, निश्चिंत होकर कर्म करने की प्रेरणा देता है। यह धर्मग्रंथ वास्तव में कर्मग्रंथ है, जिसमें मनुष्य के कर्तव्य को ही उसका मुख्य धर्म बताया गया है।
अठारह अध्यायों में विभाजित यह ग्रंथ मानव व्यवहार की जटिलताओं और बदलती परिस्थितियों में मानवीय प्रतिक्रियाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। यह व्यक्तिगत और सार्वभौमिक कर्तव्यों की अवधारणा को स्पष्ट करता है। साथ ही ब्रह्मांड की सर्वव्यापी ऊर्जा की वैज्ञानिक व्याख्या भी करता है।
अध्याय 1: अर्जुनविषादयोग
धृतराष्ट्र, जो सत्य से परिचित होते हुए भी उससे विमुख हैं, अपने पुत्रों के अन्यायपूर्ण कृत्यों को जानते हुए भी, उनकी विजय की प्रार्थना करते हैं। यह उनकी दुर्बलता को दर्शाता है। स्वयं अनुचित कार्य करके भी अच्छे परिणाम की अपेक्षा करना मानव प्रवृत्ति की विकृति है। अधर्म का बीज बोकर धर्म का फल प्राप्त करने की आशा रखना मानव मन का बड़ा विरोधाभास है।
दूसरी ओर दुर्योधन है, जो न्याय-अन्याय के भेद से अपरिचित है। जीवनभर उसने अनिष्ट कार्य किए, और वरिष्ठों के समझाने के बावजूद वह प्रकृति के न्याय को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। अपनी सेना की शक्ति देखकर वह स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने के भ्रम में मग्न रहता है।
वहीं अर्जुन है, जो धर्मयुद्ध के प्रति अपने कर्तव्य को जानता है। उसे मृत्यु का भय नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि वह सत्य और न्याय के पथ पर है। फिर भी युद्धक्षेत्र में अपने स्वजनों को देखकर मोहग्रस्त हो जाता है। अतीत में पांडवों के साथ हुए अन्याय, द्रौपदी का चीरहरण, वनवास, और अपमान सब कुछ भूलकर अर्जुन युद्ध करने से मना कर देता है।
अर्जुन की यह स्थिति मनुष्य की दुर्बलता को दर्शाती है। अक्सर, सही होने के बावजूद व्यक्ति अपने निर्णय पर शंका करता है। परंतु अन्याय के विरुद्ध चुप रहना और अपमानित जीवन स्वीकार करना कैसे उचित हो सकता है? अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना और अपने संकटों का समाधान खोजना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है।
©️ पल्लवी गुप्ता 🌷
2 comments:
Great work
Keep doing ✨
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